हवा की ख़ुश्बू बता रही है वो ज़ुल्फ़ अपनी सजा रहे हैं / Hawa Ki Khushboo Bata Rahi Hai Wo Zulf Apni Saja Rahe Hain
हवा की ख़ुश्बू बता रही है, वो ज़ुल्फ़ अपनी सजा रहे हैं सवारी तयबा से चल पड़ी है, हुज़ूर तशरीफ़ ला रहे हैं नवाज़िशों पर नवाज़िशें हैं, 'इनायतों पर 'इनायतें हैं नबी की ना'तें सुना सुना कर हम अपनी क़िस्मत जगा रहे हैं कहीं पे रौनक़ है मय-कशों की, कहीं पे महफ़िल है दिल-जलों की ये कितने ख़ुश-बख़्त हैं जो अपने नबी की महफ़िल सजा रहे हैं न पास पी हो तो सूना सावन, वो जिस पे राज़ी वही सुहागन जिन्हों ने पकड़ा नबी का दामन, उन्हीं के घर जगमगा रहे हैं यहाँ पे लाखों सिकंदर आए, न बाँस बाक़ी न बाँसुरी है मगर हमारे नबी के झंडे अज़ल के दिन से खड़े हुए हैं कोई तो बोले जिसे ख़ुदा ने नहीं दिया है नबी का सदक़ा हमारे बच्चे तो मुस्तफ़ा के ही टुकड़े खा कर बड़े हुए हैं हबीब-ए-दावर, ग़रीब-परवर, रसूल-ए-अकरम, करम के पैकर किसी को दर पे बुला रहे हैं, किसी के ख़्वाबों में आ रहे हैं मैं अपने ख़ैर-उल-वरा के सदक़े, मैं उन की शान-ए-'अता के सदक़े भरा है 'ऐबों से मेरा दामन, हुज़ूर फिर भी निभा रहे हैं बनेगा जाने का फिर बहाना, कहेगा आ कर कोई दीवाना चलो, नियाज़ी ! तुम्हें मदीने, मदीने वाले बुला रहे हैं शायर: अब्दुल सत्...